जम्मू-कश्मीर के प्रति सदाशयता जरूरी!
डॉ.
प्रभात ओझा
दो–ढाई
महीने में होने वाले विधानसभा के सम्भावित चुनाव से पहले जम्मू-कश्मीर की राज्य
सरकार के कई बड़े अधिकार उप राज्यपाल को दिए जाने पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है।
प्रारम्भिक तौर पर माना गया है कि इस बदलाव से जम्मू-कश्मीर भी दिल्ली राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र की तरह हो जाएगा। दिल्ली में भी विधानसभा है, पर वहां की सरकार को
अन्य राज्यों की तरह कई विशेष प्रशासनिक अधिकार नहीं हैं। केंद्र शासित प्रदेशों
में ये अधिकार केंद्र के पास रखे जाने के अपने जायज तर्क हैं। जहां तक दिल्ली की
बात है, राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण दुनियाभर के देशों के दूतावास, वाणिज्यिक
कार्यालय आदि यहां मौजूद हैं। दुनियाभर के राजनयिक यहां प्रायः आते रहते हैं। इस
तर्क पर आजादी के लंबे समय बाद भी केंद्र में चाहे जो सरकार आए, दिल्ली को अन्य
प्रदेशों की तरह राज्य के अधिकार नहीं मिले हैं। इनके साथ अंडमान एवं निकोबार
द्वीप समूह, दादर तथा नगर हवेली और दमन एवं दीव, लक्षद्वीप, पुदुच्चेरी, चंडीगढ़
और जम्मू-कश्मीर से हाल में अलग हुए लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश हैं। इन स्थानों
पर उप राज्यपाल अथवा प्रशासकों की नियुक्ति की जाती है। केंद्र की ओर से ये ही इन
प्रदेशों की शासन व्यवस्था देखा करते हैं। इस दृष्टि से जम्मू कश्मीर में भी उप
राज्यपाल को विशेष अधिकार प्रथम दृष्ट्या ठीक लगते हैं। इसके बावजूद देखें तो
दिल्ली और जम्मू-कश्मीर की अपनी विधानसभाएं हैं। यहां चुनकर आई राज्य सरकार को
अन्य राज्यों की तरह अधिकार का नहीं मिलना चर्चा का विषय है।
दिल्ली
केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा और राज्य सरकार की स्थिति बहुत पुरानी है। यहां
विधानसभा होने को लेकर प्रारम्भ में हुए प्रयोग अब समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा
यहां की सरकार और उप राज्यपाल के बीच अधिकारों के बंटवारे पर भी अरविंद केजरीवाल
की आम आदमी पार्टी की सरकार के आने के पहले कोई विवाद नहीं रहा है। अब दिल्ली सरकार को लगता है कि
पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले जैसे अधिकार भी उनके पास
रहें, तो आम लोगों के हक में होगा। जम्मू-कश्मीर का केंद्र शासित होना तो हाल का
मसला है। यहां अधिकारों को लेकर विवाद स्वाभाविक है। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय
जनता पार्टी ने नए फैसले को सीमावर्ती राज्य की सुरक्षा को लेकर जरूरी बताया है।
वहां दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से लेकर राज्य की पार्टियों ने इस
निर्णय को राज्य के हितों के विपरीत ठहराया है।
कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि नये अध्यादेश से साफ है कि
केंद्र अपने वादे के अनुसार निकट भविष्य में जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा
नहीं देना चाहता। नेशनल कांफ्रेंस नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर
अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया और अधिक तीखी है। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के लोग
शक्तिहीन, रबर स्टैम्प सीएम से बेहतर के हकदार हैं। उमर ने जोड़ा कि संशोधन संकेत
हैं कि चुनाव नजदीक हैं। तय लगता है कि राज्य विधानसभा चुनाव में प्रदेश के
मुख्यमंत्री को ‘रबर स्टैम्प’की तरह बना दिए जाने का मुद्दा भी हावी रहेगा।
ज्ञातव्य है कि पांच अगस्त,2019 को केंद्र सरकार ने
जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित
प्रदेशों में विभाजित करने का प्रस्ताव संसद में रखा था। इस प्रस्ताव के पारित
होने के बाद जहां संविधान का अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी हो गया, वहीं राष्ट्रपति के
आदेश के जरिए बना 35 ए भी समाप्त हो गया। इसके साथ ही राज्य लद्दाख को अलग कर
जम्मू-कश्मीर के साथ इन दोनों को केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिया गया। तब सरकार
ने वादा किया था कि जम्मू-कश्मीर को जल्द ही फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा वापस दे
दिया जाएगा। इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाओं के जरिए चुनौती दी गई
थी, जिन्हें निस्तारित करते हुए कोर्ट ने 11 दिसंबर,2023 को केंद्र के फैसले को
संवैधानिक ठहराया था।
अब केंद्र सरकार ने उसी जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में संशोधन करते हुए प्रदेश के उप
राज्यपाल को और अधिक अधिकार दिए हैं। इन संशोधनों को जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित
प्रदेश सरकार संचालन के (द्वितीय संशोधन) नियम,
2024 कहा जाएगा। इसी 12 जुलाई की रात अधिनियम के तहत ‘नियमों’ में
संशोधन करते हुए नई अधिसूचना जारी की गई। कहा गया कि राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर
केंद्र शासित प्रदेश सरकार के संचालन के नियम,
2019 में संशोधन के बाद नए नियम बनाए हैं। अधिनियम की यह
सामान्य प्रक्रिया है। परिणाम यह है कि अब जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल के पास आईएएस
और आईपीएस जैसे अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों के तबादलों और नियुक्ति, पुलिस, कानून
व्यवस्था के साथ-साथ न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के मामलों में भी अधिक शक्ति
मिल जाएगी। नए नियम में व्यवस्था है कि जिन मामलों में ‘पुलिस’, ‘लोक
व्यवस्था’, ‘अखिल भारतीय सेवा’ और ‘भ्रष्टाचार
निरोधक ब्यूरो’ के संबंध में वित्त विभाग
की पूर्व सहमति की जरूरत होती है, तब
तक स्वीकार या अस्वीकार नहीं किए जाएंगे, जब तक कि उन्हें राज्य के मुख्य सचिव के
जरिये उपराज्यपाल के समक्ष नहीं रखा जाय। साफ है कि उपराज्यपाल को इस राज्य में महाधिवक्ता
और कानून अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार भी मिल गया है।
कुछ बातें गौर करने लायक हैं कि राज्य का विशेष दर्जा
समाप्त होने के बाद जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय ध्वज के साथ अब राज्य का झंडा नहीं
लगाया जाता। आतंकी घटनाएं काफी कम हुई हैं। हाल की कुछ घटनाओं को छोड़ दिया जाय तो
इसे हर काल-खंड में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। विकास की कई योजनाएं धरातल पर
दिखने लगी हैं, सड़कों का विस्तार हुआ है, बाहरी पुरुषों से शादी करने वाली
महिलाओं को उनकी सम्पत्ति से बेदखल करने का कानून खत्म हो चुका है। एक सरकारी
अनुमान के मुताबिक पांच लाख से अधिक युवाओं को स्वरोजगार के लिए मदद दी गई है।
यह जरूर है कि लंबे समय तक विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त
इस प्रदेश के निवासी आज भी केंद्र के हर कदम को ‘हिंदुस्तान सरकार का फैसला’
बताने के अभ्यस्त हैं। हालांकि इसमें काफी बदलाव आया है और पूरे देश के साथ जुड़ाव
को बढ़ावा मिल रहा है। चुनाव होने पर राजनीतिक दलों का दायित्व होगा कि इस भावना
के विस्तार में मदद करें। कुछ दल मुख्यमंत्री के अधिकार सीमित करने का मसला
उठाएंगे, यह स्वाभाविक ही है। केंद्र को भी जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा
बहाल कर देने के अपने वादे को याद रखना होगा।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार के साथ जुड़े रहे हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार