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आरएसएस : राष्ट्र प्रथम की अविचल साधना और भारत का स्वतंत्रता संग्राम

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

15 अगस्त 2025 को भारत का 79वां स्वतंत्रता दिवस है। भारत की स्वतंत्रता की गाथा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के योगदान को प्रायः अनदेखा किया जाता रहा है, जबकि स्वतंत्रता संग्राम में स्वयंसेवकों ने न केवल सक्रिय भागीदारी की, बल्कि हर मोर्चे पर अहम भूमिका निभाई और अपने प्राणों की आहुति तक दी। यह रिपोर्ट, 1901 से 1942 तक संघ प्रमुख डॉ. हेडगेवार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्वतंत्रता संग्राम में निभाई गई अहम भूमिका के 13 प्रसंगों पर आधारित है।

वर्ष 1901 में महज आठ वर्ष की आयु में अंग्रेजों से लड़ पड़े थे डॉ. हेडगेवार! यह बात साल 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के अवसर पर स्कूल में बांटी गई मिठाई से जुड़ी है, जब आठ वर्षीय बालक केशव ने इसे न खाकर कूड़े में फेंक दिया था। यह अंग्रेजों के प्रति उनका पहला प्रतिकार था। इसके बाद साल 1907 में ‘रिस्ले सेक्युलर’ नामक पुस्तक में ‘वंदे मातरम्’ के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का अन्यायपूर्ण आदेश जारी किया गया। डॉ. हेडगेवार ने स्कूल में अंग्रेज अधिकारी के निरीक्षण के समय ‘वंदे मातरम्’ के उद्घोष के बाद अंग्रेजों से माफी मांगने से इनकार किया, जिसके कारण उन्हें रेजिंलेण्ड क्रॉडक के निर्देश और पुलिस महानिरीक्षक सी. आर. क्लीवलैंड की अनुशंसा पर स्कूल से निष्कासित कर दिया गया था।

डॉ. हेडगेवार ने 16 वर्ष की आयु में युवाओं में राष्ट्रीय घटनाओं पर चर्चा के लिए 1901 में ‘देशबंधु समाज’ की शुरुआत की। रामपायली में अक्टूबर 1908 में दशहरे के रावण दहन कार्यक्रम में उन्होंने देशभक्ति से पूर्ण जोशीला भाषण दिया, जिससे पूरी भीड़ ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगाने लगी थी । संदर्भ- लोकप्रबोधन (गोविन्द गणेश आवदे, महाराष्ट्र, 28 जुलाई, 1940, पृष्ठ 12)।

असहयोग आंदोलन में भाग लेने पर गिरफ्तार हुए थे हेडगेवार

वर्ष 1920 में, जब नागपुर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, तो डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेस में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव पेश किया, जो उस समय पारित नहीं हुआ। 1921 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में वे भी सत्याग्रहियों में शामिल थे, जिन्होंने गिरफ्तारी दी। उन्हें एक वर्ष की जेल हुई। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना का एक मुख्य उद्देश्य देश की स्‍वाधीनता को हासिल करना था, और आरएसएस के स्वयंसेवकों ने न केवल इसमें भाग लिया, बल्कि इसके लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी। कई पुस्‍तकों में आज इसका जिक्र मिलता है, ब्रिटिश दस्तावेजों में भी यह देखा जा सकता है।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ की स्थापना

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा की गयी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही हेडगेवार 1921 और 1931 में दो बार जेल गए थे। वे क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति के सदस्य भी थे और कोलकाता में चिकित्सा की पढ़ाई के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों में कई बार भाग लिया था। तब संघ स्‍थापना के साथ ही डॉ. हेडगेवार से स्‍वयंसेवकों को यह कहा था कि वे अपने-अपने स्‍थान पर स्‍वाधीनता के आन्‍दोलन में भाग लेते रहें। ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा पर संघ शाखाओं में जश्न मनाया गया। यह एक तथ्‍य है, जब कांग्रेस ने 1929 में लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा की, तब रा.स्‍व.संघ ने अपनी सभी शाखाओं में इसका आधिकारिक रूप से जश्न मनाया, जिसमें अखिल भारतीय शाखाओं ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया।

राजगुरु के ठहरने के लिए डॉ. हेडगेवार ने की थी व्यवस्था

सांडर्स की हत्या के बाद राजगुरु अमरावती आ गए। यहाँ वे हनुमान प्रसारक मंडल के ग्रीष्मकालीन कैंप से जुड़ गए। वहाँ से वे अकोला गए और राजराजेश्वर मंदिर के समीप एक किराए के घर में रहने लगे, जिसका इंतजाम बापू साहब सहस्त्रबुद्धे ने किया था। इसी दौरान, 1929 में जब राजगुरु नागपुर में थे, तब उनकी मुलाकात डॉ. हेडगेवार से हुई। सरसंघचालक ने उन्हें सलाह दी कि वे पुणे न जाएँ। ब्रिटिश सरकार से बचाने के लिए उन्होंने राजगुरु के रहने की व्यवस्था भैयाजी दाणी के उमरेड स्थित एक स्थान पर कर दी थी। हालाँकि, राजगुरु ने इस सलाह को नहीं माना और पुणे चले गए, जहाँ 30 सितंबर 1929 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।पुस्‍तक- The Founder of RSS: Dr.Hedgewar (च. प. भिशीकर, केशव संघ निर्माता, सुरुचि प्रकाशन: नई दिल्ली, 1979, पृष्ठ 70)

इसके बाद हम देखते हैं, 26 जनवरी 1930 की उस तारीख को जब ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ का आह्वान किए जाने का स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े स्वयंसेवकों ने जश्‍न मनाया। कांग्रेस ने 26 जनवरी 1930 को ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया था। डॉ. हेडगेवार ने इसका स्वागत करते हुए सभी स्वयंसेवकों को निर्देश देते हुए परिपत्र में लिखा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा स्वतंत्रता के लक्ष्य को अपनाए जाने से हमें स्वाभाविक रूप से अपार प्रसन्नता है। इस उद्देश्य के लिए कार्यरत किसी भी संगठन के साथ सहयोग करना हमारा कर्तव्य है। इसलिए 26 जनवरी 1930 की शाम को आरएसएस की सभी शाखाओं को अपने-अपने स्थानों पर स्वयंसेवकों की रैलियाँ आयोजित करनी चाहिए और राष्ट्रीय ध्वज (भगवा ध्वज) की पूजा करनी चाहिए।

नमक सत्याग्रह का विस्तार करने के लिए संघ ने ‘जंगल सत्याग्रह’ शुरू किया

संघ का कार्य अभी मध्य प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था। यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोड़कर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए। सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार जी के सम्बोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। उन्होंने कहा था- स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के बूट की पॉलिश करने से लेकर उनके बूट को पैर से निकालकर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं। मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है। डॉ. हेडगेवार जी के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में अप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह), दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक शामिल थे। उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया।

सत्याग्रह के हिस्से के रूप में, नमक पहली बार 13 अप्रैल 1930 को दहिहंडा (जिला अकोला) और भामोद (जिला अमरावती) के दो गांवों में खारे कुओं से बनाया गया। नमक सत्याग्रह को मध्य प्रांतों और बरार में केवल प्रतीकात्मक और सीमित प्रतिक्रिया ही मिली, क्योंकि यहाँ न तो नमक था और न ही समुद्र का किनारा। इस आंदोलन को मध्य भारत में विस्तार देने के लिए ‘जंगल सत्याग्रह’ शुरू किया गया।

जंगल सत्याग्रह करने पर डॉ. हेडगेवार को सश्रम कारावास

जंगल सत्याग्रह, 1927 के भारतीय वन अधिनियम के खिलाफ किसानों और सत्याग्रहियों के दमन के विरुद्ध किया गया आंदोलन था। 21 जुलाई 1930 को महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के एक जंगल में हुए सत्याग्रह में डॉ. हेडगेवार ने भाग लिया, जहाँ 10 से 12 हजार का जनसमूह एकत्र हुआ। ‘महात्मा गांधी की जय! स्वतंत्रता देवी की जय!’ जैसे नारों से सारा जंगल गूंज उठा।

कानून भंग करने के आरोप में डॉ. हेडगेवार, ढवळे सहित कुल 11 सत्याग्रहियों को हिरासत में ले लिया गया। डॉ. हेडगेवार को क्रमशः 6 और 3 माह, यानी कुल 9 माह का सश्रम कारावास सुनाया गया। वहीं, ग्यारह सत्याग्रहियों में प्रत्येक को 4 माह का सश्रम कारावास दिया गया। (अन्य स्रोत के. के. चौधरी, संपादक, सिविल डिसओबिडियंस मूवमेंट अप्रैल-सितंबर 1930 खंड 9, गैजेटीयर्स डिपार्टमेंट, महाराष्ट्र सरकार, 1990, पृष्ठ 957)

गांव-गांव में संघ की शाखाओं से पढ़ा गया स्वतंत्रता संदेश

अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) मार्तण्ड जोग, नागपुर के जिला संघचालक अप्पा जी हळदे और अनेक कार्यकर्ताओं एवं शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जिनके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे। 8 अगस्त को, गढ़वाल दिवस पर धारा 144 तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से कई स्वयंसेवक घायल हुए। विजयाद‌शमी 1931 को डॉक्टर जी जेल में थे। उनकी अनुपस्थिति में गाँव-गाँव की संघ शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया “देश की परतंत्रता नष्ट होकर, जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता, तब तक रे मन। तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं।(राष्ट्रीय आन्दोलन और संघ, सुरुचि प्रकाशन, पृष्ठ 9)

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों पर गोलीबारी और मौत की सजा

वर्ष 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू हुआ, तो संघ के दूसरे सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर के मार्गदर्शन और नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने इसमें भाग लिया। बिहार के पटना में झंडा लगाते हुए सत्याग्राहियों पर अंग्रेजों ने फायरिंग कर दी, जिसमें 07 लोगों की मौत हो गई, जिनमें 2 संघ के कार्यकर्ता (RSS स्वयंसेवक बालाजी रायपुरकर और अन्य) थे। सिंध के सक्खर कस्बे के स्वयंसेवक हेमू कालानी को स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए ब्रिटिश सैनिकों की आवाजाही रोकने के आरोप में रेलवे पटरियों से फिशप्लेट हटाने के लिए गिरफ्तार किया गया। हेमू को 1943 में सेना की अदालत ने मौत की सजा सुनाई।

‘चिमूर आष्टी कांडः संघ का अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में चिमूर के स्वयंसेवकों ने 16 अगस्त 1942 को रमाकांत देशपांडे के नेतृत्व में आंदोलन शुरू किया। आंदोलन जल्द ही हिंसक हो गया और कुछ अंग्रेज भी मारे गए। यह घटना आंदोलन के इतिहास में ‘चिमूर आष्टी कांड’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने चिमूर संघ शाखा के प्रमुख दादा नाइक को मौत की सजा सुनाई। संघ के एक अन्य स्वयंसेवक रामदास रामपुरे की अंग्रेजों ने गोली मारकर हत्या कर दी। अंग्रेजों ने विद्रोह के लिए दादा नाइक और संत तुकडोजी महाराज को दोषी ठहराया। बाद में संत तुकडोजी महाराज विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के सह-संस्थापक बने।

भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों की मदद

सोलापुर के कांग्रेस कमेटी के सदस्य गणेश बापूजी शिंकर ने 1948 में संघ पर प्रतिबंध हटाने के लिए दबाव बनाने हेतु सत्याग्रह में भाग लिया था। (महात्मा गांधी की हत्या के बाद नेहरू सरकार ने गलत तरीके से आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था, बाद में यह प्रतिबंध हटाना पड़ा।) सत्याग्रह में शामिल होने से पहले उन्होंने लोकतांत्रिक नैतिकता के आधार पर कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने अपना रुख स्पष्ट करते हुए एक बयान जारी किया, जो 12 दिसंबर 1948 को प्रकाशित हुआ। बापूजी शिंकर कहते हैं, “मैंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। उस समय पूंजीवादी और कृषक समुदाय सरकार से डरे हुए थे। इसलिए हमें उनके घरों में सुरक्षित आश्रय नहीं मिला। हमें भूमिगत काम करने के लिए संघ (आरएसएस) कार्यकर्ताओं के घरों में रहना पड़ा।” वे यह भी कहते हैं कि “संघ के लोग हमारे भूमिगत काम में खुशी-खुशी हमारी मदद करते थे। वे हमारी सभी जरूरतों का भी ख्याल रखते थे। इतना ही नहीं, अगर हममें से कोई बीमार पड़ जाता था, तो संघ के स्वयंसेवक डॉक्टर हमारा इलाज करते थे। संघ के स्वयंसेवक, जो वकील थे, निडरता से हमारे मुकदमे लड़ते थे। उनकी देशभक्ति और मूल्य आधारित जीवनशैली निर्विवाद थी।”

स्वयंसेवकों के घर ठहरते थे वीर क्रांतिकारी

दिल्ली के संघचालक (आरएसएस की दिल्ली इकाई के प्रमुख) लाला हंसराज के घर का इस्तेमाल प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ अली ने भूमिगत रहने के लिए किया था। अगस्त 1967 में देश के प्रसिद्ध हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, “मैं 1942 के आंदोलन में भूमिगत थी; दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज ने मुझे 10-15 दिनों के लिए अपने घर में शरण दी और मेरी पूरी सुरक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि किसी को भी मेरे उनके घर पर रहने की जानकारी न मिले।”

प्रसिद्ध वैदिक विद्वान पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर औंध (महाराष्ट्र) के संघचालक थे। उन्होंने क्रांतिकारी भूमिगत नेता नाना पाटिल के अपने घर पर ठहरने की व्यवस्था की थी। पाटिल ‘पत्री सरकार’ जैसे नए विचार के प्रयोग के लिए जाने जाते थे। पाटिल के सहयोगी किसनवीर अंग्रेजों के खिलाफ भूमिगत अभियान चलाते हुए सतारा (महाराष्ट्र) के संघचालक के घर पर रुके थे। प्रसिद्ध समाजवादी नेता अच्युतराव पटवर्धन अंग्रेजों के खिलाफ भूमिगत आंदोलन के दौरान कई आरएसएस स्वयंसेवकों के घरों पर रुके थे।

ब्रिटिश सीआईडी रिपोर्ट कहती है

1940 से 1947 के दौरान, सीआईडी लगातार आरएसएस के विस्तार और गोलवलकर द्वारा देश भर में लोगों में देशभक्ति की अलख जगाने के तरीकों के बारे में रिपोर्ट भेजती रही। आरएसएस अंग्रेजों के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया था। 30 दिसंबर, 1943 की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक अत्यंत महत्वपूर्ण अखिल भारतीय संगठन के निर्माण की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। संघ के प्रवक्ता कहते रहे हैं कि संघ का मूल लक्ष्य हिंदू एकता हासिल करना है… नवंबर 1943 में लाहौर में एक कार्यक्रम में, एमएस गोलवलकर ने घोषणा की कि संघ का उद्देश्य अस्पृश्यता की भावना को दूर करना और हिंदू समाज के सभी वर्गों को एक सूत्र में पिरोना है।”

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “संघ की सदस्यता निरंतर बढ़ रही है। उनकी वृद्धि का एक नया आयाम गाँवों में पैठ बनाने के उनके प्रयास हैं। संघ के प्रधान कार्यालय के पदाधिकारी सुदूर क्षेत्रों में शाखाओं का निरंतर दौरा कर रहे हैं, ताकि वे स्वयंसेवकों की संघ कार्य में रुचि बढ़ा सकें, उन्हें गुप्त निर्देश दे सकें और स्थानीय संगठन को मज़बूत कर सकें। संघ के वर्तमान प्रमुख एमएस गोलवलकर के हालिया विस्तृत दौरे को हम ऐसे प्रयासों के उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। अप्रैल के अंतिम माह में वे अहमदाबाद में थे; मई में वे अमरावती और पुणे में थे। जून में वे नासिक और बनारस में थे। उन्होंने अगस्त में चांदना, सितंबर में पुणे, अक्टूबर में मद्रास और मध्य प्रांत तथा नवंबर में रावलपिंडी का दौरा किया।”

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनते ही आज के भारत में एक ऐसे संगठन की छवि उभरती है, जो अनुशासन, सेवा और राष्ट्रनिष्ठा का पर्याय बन चुका है। किंतु जब स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की चर्चा होती है, तो अनेक बार यह विलाप सुनाई देता है कि संघ ने इस संघर्ष में कोई भूमिका नहीं निभाई। यह आरोप न केवल इतिहास के साथ अन्याय है, बल्कि उन हजारों स्वयंसेवकों के त्याग और योगदान को भी नकार देता है, जिन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में भारत की स्वतंत्रता की साधना में अपने जीवन का सर्वोत्तम समय लगा दिया।

सच यह है कि संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वयं एक प्रखर क्रांतिकारी थे, जिनका जीवन ब्रिटिश शासन के खिलाफ सक्रिय संघर्ष में बीता। शिक्षा के दौरान वे राष्ट्रचेतना के विचारों से गहरे प्रभावित हुए। जब वे उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गए, तो उनका संपर्क ‘अनुशीलन समिति’ जैसे क्रांतिकारी संगठनों से हुआ। उन्होंने क्रांतिकारी संदेश पहुँचाने, हथियारों के परिवहन, और ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में प्रत्यक्ष भाग लिया। हेडगेवार को कलकत्ता के क्रांतिकारी मंडलों में “डॉक्टर साहब” के नाम से जाना जाता था और वे गुप्त रूप से राष्ट्रवादी साहित्य और हथियार वितरित करते थे।

डॉ. हेडगेवार का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता केवल शुरुआत है, राष्ट्र निर्माण का असली काम उसके बाद होगा। 1930 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह का आह्वान होते ही हेडगेवार ने नागपुर सत्याग्रह का नेतृत्व किया । पुस्‍तक “आरएसएस एंड इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल” के अनुसार इस समय महाराष्ट्र, मध्य प्रांत, बंगाल और उत्तर प्रदेश के अनेक स्वयंसेवकों ने नमक कानून तोड़ने, विदेशी कपड़ों की होली जलाने और सरकारी कर न देने जैसी कार्रवाइयों में भाग लिया। 1932 में द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान, जब कांग्रेस के अधिकांश नेता जेल में थे, संघ के स्वयंसेवकों ने गुप्त संदेश पहुँचाने, भूमिगत सभाओं के आयोजन और आर्थिक सहायता जुटाने का कार्य किया।

ब्रिटिश खुफिया विभाग की 1933 की रिपोर्ट में साफ कहा गया: “The Rashtriya Swayamsevak Sangh, though ostensibly non-political, is capable of becoming a serious menace to law and order if its members decide to direct their discipline and organizational capacity into the political field.” (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, यद्यपि ऊपर से गैर-राजनीतिक दिखता है, किंतु यदि इसके सदस्य अपने अनुशासन और संगठन क्षमता को राजनीतिक क्षेत्र में लगाएँ, तो यह कानून-व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है।)

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय, जब कांग्रेस का पूरा शीर्ष नेतृत्व जेल में था, वि. गो. देशपांडे की पुस्‍तक “भारत छोड़ो और संघ” में वर्णित है कि वर्धा, सतारा, नागपुर, जबलपुर और कानपुर में संघ कार्यकर्ताओं ने भूमिगत क्रांतिकारियों को सुरक्षित ठिकाने, हथियार और संदेश पहुँचाने की व्यवस्था की। अनेक स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए, कई पुलिस की गोलीबारी में घायल हुए। एक इंटेलिजेंस ब्यूरो रिपोर्ट, जो आर. एन. मुखर्जी की पुस्‍तक्‍ “ब्रिटिश सीक्रेट डॉसियर्स ऑन आरएसएस” में प्रकाशित है, में कहा गया; “The RSS is not a negligible factor. Its members are disciplined, well-trained and capable of spreading anti-British sentiment among the youth.” (आरएसएस कोई नगण्य तत्व नहीं है। इसके सदस्य अनुशासित, प्रशिक्षित हैं और युवाओं में ब्रिटिश-विरोधी भावना फैलाने में सक्षम हैं।)

स्वतंत्रता के अंतिम वर्षों में, विशेषकर 1946-48 के विभाजन काल में, संघ ने जो सेवा कार्य किए, वे किसी भी राजनीतिक दल या संगठन से कम नहीं थे। इतिहासकारों का एक वर्ग यह मानता है कि चूँकि संघ ने प्रत्यक्ष सत्ता की राजनीति में भाग नहीं लिया, इसलिए स्वतंत्रता संग्राम में उसकी भूमिका को कमतर आंका गया। परंतु उपलब्ध दस्तावेज़, स्वतंत्रता सेनानियों के बयान और ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टें यह सिद्ध करती हैं कि संघ स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण प्रचारित घटक था।

डॉ. हेडगेवार का यह विश्वास था कि स्वतंत्रता केवल एक लक्ष्य नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को पुनः जागृत करने का साधन है। संघ ने जिस अनुशासन, संगठन और सेवा भावना का निर्माण स्वतंत्रता से पहले किया, वही बाद में राष्ट्र निर्माण में उसकी सबसे बड़ी पूँजी बनी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान संघ ने प्रत्यक्ष भागीदारी के साथ-साथ, परोक्ष रूप से भी राष्ट्रवादी चेतना का प्रसार किया, जो किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए अनिवार्य तत्व है। इसलिए यह कहना सही होगा कि संघ का इतिहास केवल किसी संगठन का इतिहास नहीं, बल्कि राष्ट्र के निर्माण का इतिहास है। स्वतंत्रता आंदोलन में उसका योगदान प्रत्यक्ष राजनीतिक धरनों और जेल यात्राओं से परे, समाज की मनोभूमि को तैयार करने, अनुशासन और संगठन खड़ा करने में रहा और यही कार्य स्वतंत्रता के वास्तविक आधार थे। आज, जब हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, यह आवश्यक है कि इतिहास का यह पृष्ठ निष्पक्षता से पढ़ा जाए और “राष्ट्र प्रथम” की इस परंपरा को सम्मान दिया जाए।

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