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सक्षम नेतृत्व का संदेश है गणेशोत्सव

सनातन परंपरा में गणपति पूजन सबसे पहले होता है। शिवाजी महाराज से लेकर लोकमान्य तिलक तक सभी ने सामाजिक जाग्रति के लिये गणेशोत्सव को ही सबसे बड़ा माध्यम बनाया था। तब ये जिज्ञासा स्वाभाविक है कि आखिर गणपति जी का पूजन ही सर्व प्रथम क्यों होता है। इसका समाधान भगवान गणेश के जन्म से उनके गणनायक बनने के प्रसंग में है। गणेशोत्सव प्रतिवर्ष भाद्रपद माह शुक्लपक्ष चतुर्थी को आता है। इस वर्ष यह तिथि 27 अगस्त को पड़ रही है। वे गणनायक भी हैं और विघ्नविनाशक भी। उनके इन दोनों नामों में दो संदेश हैं। एक नेतृत्वर्ताओं के लिये कि समाज की सभी बाधाओं को दूर कर स्वच्छ वातावरण बनायें। दूसरा प्रत्येक नागरिक के लिये कि वे जो काम आरंभ करें पहले उसमें आने वाली वाधाओं पर विचार करें। ताकि सब काम सरलता से पूरे हों। वह पूजन हो या जीवन की कोई भी विधा यदि आसपास विघ्नसंतोषी तत्व हैं तो वे जीना कठिन कर देते हैं। इसलिये जीवन की प्रत्येक विधा में वाधाओं पर प्रथम विचार आवश्यक है।

अब उनके जन्म की कथा समझें। उनके जन्म की कथा सामान्य नहीं है। उनके जन्म की कथा से गणनायक बनने तक प्रत्येक घटना व्यक्तित्व निर्माण, समाज सशक्तीकरण और कुटुम्ब समन्वय का अद्भुत संदेश है । गणपति जी के जन्म और उनके स्वरूप को लेकर कथा है कि गणेशजी ने भगवान शिव को द्वार पर रोका और शिवजी ने उनका सिरच्छेद कर दिया। माता पार्वती के विलाप करने के बाद एक हथिनी के बच्चे का शीश लाकर पुनर्जीवित किया । इसलिए उनका स्वरूप ऐसा बना। भगवान शिव देवाधिदेव हैं। त्रिकालदर्शी हैं। क्या वे नहीं जान सकते थे कि यह बालक कौन है? किसके आदेश से द्वार पर है और फिर भला सृष्टि में कौन सा द्वार है, जो शिवजी को रोक सकता है ? यदि भगवान शिव ने सिरच्छेद कर भी दिया तो वे पल भर में नया शीश सृजित कर सकते थे। फिर भी लीला की। तो यह लीला करके वे समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं। बालक के पुनर्जीवन के लिये ऐसे माता-पुत्र खोजे गये जो एक दूसरे की ओर पीठ किये हुये हैं। पुत्र की पीठ माता की ओर और माता की पीठ पुत्र की ओर।

इस कथा में लोक कल्याण और लोक संचालन के अनेक संदेश हैं। सबसे पहला संदेश उन द्वारपालों के लिये है जो द्वार पर अपनी बुद्धि विवेक का प्रयोग नहीं करते । द्वारपाल को यह बुद्धि अवश्य लगानी चाहिए कि आगंतुक कौन है और उसके साथ क्या व्यवहार करना चाहिए। आगन्तुक को परखकर उसके अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। आधुनिक संदर्भ में तो यह विवेकशीलता अति आवश्यक हो गई है । दूसरा संदेश माता और पुत्र के लिये है । कथा में जिस हथिनी के बच्चे का शीश काटकर लाया गया वह अपनी मां से विमुख होकर सो रहा था और माता की पीठ भी बच्चे की ओर थी । अर्थात दोनों एक दूसरे के विपरीत। वैदिक काल से लेकर आधुनिक विज्ञान के निष्कर्ष तक यह स्पष्ट हो चुका है कि व्यक्तित्व का निर्माण माता करती है। न केवल शरीर की पुष्टता और विकास अपितु शिक्षा और संस्कार भी माता से मिलते हैं। संसार में माता के सांचे में ढले बच्चे ही आसमान की ऊंचाई छूते है। भला उस बच्चे का भविष्य कैसे सुरक्षित रह सकेगा, जो माता से विपरीत दिशा में बढ़ रहा है और माता ने भी उसकी ओर से मुंह फेर लिया है। यह कथा इन दोनों प्रकार की मानसिकता को चेतावनी है। जो माताएं पुत्र पर ध्यान नहीं देतीं उनको भी और जो पुत्र माता का सम्मान नहीं करते उनको भी। माता और पुत्र यदि एक दूसरे के विमुख हैं, विपरीत हैं तो पुत्र का क्षय होना निश्चित है।

गणेशजी के अंगों का विश्लेषण

गणेशजी गणनायक हैं। नायक अर्थात मुखिया, नेतृत्व करने वाला। जब भी किसी वस्तु को बहुत ध्यान से देखते हैं या एकाग्रता से देखते हैं तब हमारी आंखें सिकुड़ती हैं। यदि आंखे फैलाकर देखेंगे तो वस्तु का आकार थोड़ा धुंधला सा दीखता है । गणपति जी आंखे छोटी हैं। अर्थात नेतृत्वकर्ता को हर वस्तु हर बात, और हर घटना को एकाग्रता से समझनी चाहिए। एकदम पैनी नजर से । यह संदेश आंखों के छोटी होने का है ।

गणेश जी सूंड अर्थात नाक लंबी है । नेतृत्वकर्ता की सूंघने की शक्ति तीक्ष्ण होनी चाहिए। अपने परिवार में,समाज में या राष्ट्र में कहां क्या कुछ घट रहा, यह सब नेतृत्वकर्ता को दूर से ही सूंघ लेना चाहिए। गणेश जी के कान लंबे हैं। यनि नेतृत्वकर्ता का सूचना तंत्र तगड़ा हो और हर बात को सुनने क क्षमता होनी चाहिए। उनका पेट बड़ा है अर्थात जो भी अधिक से अधिक बात सुनी है उसे अपने पेट में डाल लेनी चाहिए। पचाने की क्षमता होनी चाहिए। ऐसा न हो कि इधर सुना और उधर सुनाया। एक सफल नेतृत्वकर्ता वही जो अपने प्रभाव सीमा की ही घटना हर व्यक्ति पर पैनी नजर रखे। कहां क्या घट रहा उसे सूंघ ले, हर बात को सुने और अपने भीतर छिपा कर रखे। माथा चौड़ा यनी उसकी छवि प्रभावकारी होनी चाहिए। उनका वाहन चूहा है। चूहा छोटे से छोटे रास्ते पर चल सकता है । पत्थरों के बीच भी मार्ग बना सकता है। अर्थात नेतृत्वकर्ता का वह तंत्र जिसके माध्यम से वह अपना प्रशासन चला रहा है, वह इतना सक्षम होना चाहिए कि वह नये मार्ग बना सके कठिन से कठिन रास्तों को भी आसान बना सकें।

नेतृत्वकर्ता को समन्वय की सीख

गणपति जी शिव परिवार के समन्वयक हैं। शिव परिवार विविधता से भरा है। शिवजी का वाहन नंदी है । नंदी अर्थात बैल । और देवी पार्वती का वाहन सिंह। सिंह का आहार होता है बैल । कुमार कार्तिकेय के वाहन मयूर, जिनका आहार नाग है । भगवान शिव का शृंगार हैं नागदेव । गणेश जी का वाहन मूषक। शिवजी सिंह चर्म पर समाधि लगाते हैं। मूषकराज का वश चले तो आसन कुतर दें। फिर भी इस परिवार में टकराहट का कोई प्रसंग किसी कथा में नहीं मिलता । शिव परिवार में यह अद्भुत समन्वय गणपति जी के कारण है । वे इससे यह संदेश मिलता है कि जो समन्वयक हैं, नेतृत्वकर्ता हैं उनमें क्षमता होनी चाहिए कि वे विषम और विपरीत स्वभाव वाले लोगों के बीच भी समन्वय कर सकें। जिससे परिवार, समाज या देश के आदर्श स्वरूप में निखार हो।

नायक या नेतृत्वकर्ता की शैली, व्यक्तित्व और व्यवहार कैसा हो यह भी गणेशजी के माध्यम से समझाया गया है । गणेशजी को लड्डुओं का भोग लगाया जाता है । लड्डू में बनाने में बहुत श्रम, साधन और समय लगता है । पहले दूध से मावा बने फिर लड्डू बनें अथवा पहले चने की दाल से बेसन बने, बेसन की बूंदी बने, उसमें शक्कर या गुड़ डालकर लड्डू बनाये जाते हैं। लड्डू खाने में जितने स्वादिष्ठ होते हैं उन्हें बनाने में उतना ही श्रम और समय लगता है । लड्डू कितना नाजुक है कि यदि वह नीचे गिर जाये तो बिखर जाता है । बेसन का एक एक कण मिलकर बूंदी बनती है फिर बूंदी को संगठित करके लड्डू। अर्थात एक एक व्यक्ति को जोड़कर युग्म बनाना। नेतृत्वकर्ता को वही प्रिय जो समाज और समूह संगठित रहता है परस्पर जुड़कर चलने का प्रयत्न करता है । जैसे लड्डू में बूंदी या बेसन के कण-कण परस्पर संगठित रहने का प्रयत्न करते हैं। लड्डू जितना पुराना होता है उतना कठोर बनता है । अर्थात समय के साथ परिवार और समाज संगठन का स्वरूप सघन होते रहना चाहिए। जो लोग इस मन मानस के होते हैं वे सदैव संगठित रहते हैं बिल्कुल लड्डू की भांति और संगठन भाव के प्रति ऐसे सकारात्मक व्यवहार के लोग ही नेतृत्वकर्ता को पसंद होते हैं बिल्कुल गणेश जी भांति। चूंकि विकास और समृद्धि के लिये संगठन का यह भाव रखने वाले समूह से और इस भाव को पसंद करने वाले नेतृत्वकर्ताओं से ही संभव होता है ।

अब उनकी पसंद दूब को समझें। दूब पैरों तले रहती है न केवल इनसान के बल्कि जानवरों के पैरों तले भी। फिर भी गणपति जी को दूब पसंद है । सामान्य जन के अपने नायक के पास कुछ भेंट लेकर जाने की परंपरा है । पुराने समय में भी लोग राजाओं के, ऋषियों के, आचार्यों और गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाते थे कुछ न कुछ लेकर ही जाते थे । तब संदेश दिया गया कि आप नायक हैं और भेंट लेने के अधिकारी हैं तो आप ऐसे बनें कि सामान्य जन यदि कोई सस्ती से सस्ती वस्तु लेकर आये उसे भी ऐसे स्वीकार करो जैसे वही आपको सबसे प्रिय है । दूब से सस्ता क्या होगा । वह भी कोई लेकर आये तो उसे भी सर्व प्रिय वस्तुओं की भांति स्वीकार करो । यदि नेतृत्वकर्ता इतनी साधारण वस्तु को भी अपनी सर्वाधिक प्रिय बताता है तब इसका संदेश जन साधारण पर भी पड़ता है । वह भी दिखावट सजावट से दूर सरल जीवन शैली की ओर प्रवत्त होता है । यह दूब गणपति जी को बहुत श्रृद्धा से अर्पित की जाती है । इसका संदेश है कि वरिष्टजनों को दी जाने वाली भेंट का मूल्य महत्वपूर्ण नहीं होता । भाव महत्वपूर्ण होता है । हमारी रिश्तेदारी में किसी अवसर विशेष पर यदि कोई सामान्य वस्तु की भेंट लेकर करता है तब भी उसमें स्नेह देखना चाहिए न कि उसका मूल्य । यही संदेश है दूब का और लड्डुओं का है । इस प्रकार गणेशजी के जन्मकथा से लेकर उनके स्वरूप, शैली और भोग प्रत्येक आयाम नया संदेश देता है। गणेशोत्सव पर गणेश जी के पूजन के साथ उनके स्वरूप और शैली से संदेश लेने की आवश्यकता है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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