हमारा स्वास्थ्य ढांचा और डॉ. भागवत का बयान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने पिछले दिनों इंदौर में महंगी स्वास्थ्य एवं शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए हैं। दुनिया की सर्वाधिक आबादी वाले भारत में महंगी चिकित्सा सुविधाएं निःसन्देह चिंता का विषय है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि निजी अस्पताल मरीजों को एटीएम समझते हैं।
असल में भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र गंभीर विसंगतियों से भरा हुआ है। एक तरफ तो हम सस्ती दवाओं और वैक्सीन के उत्पादन में विश्व भर में शीर्ष पर है लेकिन हमारे ही नागरिक दुनिया में अपने स्वास्थ्य पर अपनी जेब से सर्वाधिक पैसा भी खर्च करते हैं।देश में आर्थिक भेदभाव कम हो रहा है इसे दुनिया के तमाम संगठन मान रहे हैं लेकिन यह भी तथ्य है कि देश में करीब 7 फीसदी लोग महंगे इलाज के कारण गरीबी के गर्त में हर साल पहुँच जाते हैं। पिछले साल दिल्ली के एक निजी अस्पताल का किडनी उपचार सम्बंधित बिल 2473894 रुपये का बनाया गया था। यह बानगी भर है कि निजी क्षेत्र का स्वास्थ्य तन्त्र किस तरह काम कर रहा है।
एसीकेओ इंडिया हेल्थ इंडेक्स की हालिया रिपोर्ट कहती है कि देश में हर साल इलाज महंगा होने की दर 14 फीसदी है। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक आयुष्मान भारत जैसी बेहतरीन योजना के बाबजूद देश में अभी भी 40 फीसदी लोग अपने स्वास्थ्य पर अपनी जेब से खर्च कर रहे हैं जिसे ओओपीई (आउट औफ पॉकेट एक्सपेंडिचर) कहा जाता है। यह आंकड़ा वैश्विक औसत 18 फीसदी से काफी अधिक है। हालांकि आयुष्मान भारत के बाद स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च 29 से बढ़कर 48 प्रतिशत हुआ है, यह एक अच्छा संकेतक है। डॉ मोहन भागवत ने जिस समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है वह आम आदमी के दर्द को अधोरेखित करने वाला है क्योंकि 23 फीसदी लोग अभी भी अस्पताल के खर्चों के लिए उधार लेने पर मजबूर हैं।
महंगी स्वास्थ्य सेवाओं का सबसे अहम पहलू दवाओं से जुड़ा है क्योंकि दवाएं अभी भी बहुत महंगी है। निजी क्षेत्र में उपचार के दौरान 70 से लेकर 90 फीसदी तक एलोपैथी दवाएं ब्रांडेड ही उपयोग में आ रही हैं ,जबकि सरकार ने सस्ती जेनरिक दवाओं के लिए प्रधानमंत्री जन औषिधि केंद्र आरम्भ किये है। इन केंद्रों पर 90 फीसदी तक दवाओं के दाम ब्रांडेड दवाओं की तुलना में कम होते हैं। जेनेरिक दवाओं के लिए सरकारी प्रयास फार्मा लॉबी के दबाव में फलीभूत नहीं हो पा रहे हैं।अभी तक देश भर में 15057 जेनेरिक स्टोर खुल पाए हैं और विसंगति यह है कि इन स्टोरों में ब्रांडेड दवाओं की बिक्री भी जेनेरिक के साथ में की जा रही है।
भारत में एलोपैथी दवाओं का सालाना कारोबार 4.2 लाख करोड़ का है। करीब 3 लाख करोड़ की खपत भारतीय बाजार में है और 1.2 लाख करोड़ की दवाएं निर्यात की जाती हैं। सरकार को सर्वोपरि प्राथमिकता पर इसी क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है। अभी जेनेरिक दवाओं की तुलना में ब्रांडेड दवाओं की कीमतें 30 से 2000 फ़ीसदी तक महंगी बिक रही हैं। ब्रांडेड दवाओं के इस संगठित कारोबार को रोक कर महंगे इलाज को झटके में जमीन पर लाया जा सकता है।
असल में देश को हरित क्रांति की तरह दवा क्रांति की आवश्यकता भी है क्योंकि अभी इस क्षेत्र में कोई खास विनियमन नहीं है। आजादी के समय यूरोपीय पेटेंट वाली दवाएं इसलिए महंगी थी क्योंकि हमारे यहां उत्पादन ही नहीं था। 1970 में पेटेन्ट एक्ट के बाद भारत ने दवाओं के निर्माण में अभूतपूर्व काम किया। आज हम विश्व के अग्रणी उत्पादक हैं। कोरोना वैक्सीन में भारत का यह दम दुनिया ने देखा ही है।
महंगे इलाज का दूसरा कारक स्वास्थ्य क्षेत्र के कॉर्पोरेटाइजेशन (निगमीकरण) का है क्योंकि देश में 1980 तक स्वास्थ्य प्रदाता के रूप में धर्मार्थ न्यास या फाउंडेशन ही सक्रिय थे और सबका उद्देश्य मुनाफा नहीं सेवा मुख्य था। इसके बदले में सरकार ने गरीबों को सस्ते इलाज और स्थानीय रोजगार के नाम पर मुफ्त जमीनें दी और टैक्स रियायतें उपलब्ध कराई। आज इस क्षेत्र में नए खिलाड़ी आ गए हैं जिनका उद्देश्य कारपोरेट घरानों की तरह कारोबार करना है। यही कारण है कि देश के दो तिहाई अस्पताल शहरी क्षेत्रों में हैं और इन अस्पतालों से महज एक तिहाई आबादी को ही सेवाओं का कवरेज मिल रहा है।
निजी अस्पतालों की सघनता शहरी क्षेत्रों में घनीभूत है क्योंकि निवेशकों की नजर ज्यादा पैसे वाले क्षेत्रों में ही होती हैं। ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इन शहरी क्षेत्रों में आने वाले अधिसंख्य मरीज उन बीमारियों के होते हैं जिनको आरम्भिक शिकायत पर ही ठीक किया जा सकता है लेकिन सार्वजनिक सेवाओं का ढांचा ग्रामीण कस्बाई स्तर पर मृत प्रायः है। नतीजतन शहरी स्वास्थ्य सेवाओं पर आम आदमी की निर्भरता मजबूरी बन जाती है।
यह तथ्य है कि आजादी के बाद पहली मर्तबा स्वास्थ्य और संबद्ध सेवाओं पर सुव्यवस्थित ढंग से काम आरम्भ हुआ है। पेयजल, स्वच्छता और आवास के तीन प्रमुख स्वास्थ्य से सम्बद्ध क्षेत्रो में मोदी सरकार ने पिछले दस साल में बुनियादी काम संस्थित किये हैं। इन तीनों विषयों पर मिशन मोड में काम भी प्रगति पर है।इसी तरह आयुष्मान भारत योजना ने भी स्वास्थ्य पर निजी खर्च (ओओपीई)को 63 से 40 प्रतिशत पर लाने का काम किया है। जनवरी 2025 तक 36.9 करोड़ आयुष्मान कार्ड देश में क्रियाशील है। योजना के तहत 8.5 करोड़ लोगों के इलाज पर सरकार ने 1.40 लाख करोड़ की राशि अब तक खर्च की है।
इस तस्वीर के पीछे दो धब्बे भी हैं जिन पर चर्चा नहीं हो रही है। पहला यह कि 4.3 करोड़ मरीजों के इलाज आयुष्मान के तहत निजी अस्पतालों में हुए है और सरकारी अस्पतालों में यह आंकड़ा 4.2 है। देश का एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां आयुष्मान योजना में निजी अस्पतालों ने फर्जीवाडा नही किया हो। यानी मरीज को बिना भर्ती किये ही उसे भर्ती दिखाकर अरबों रुपये का गोलमाल हुआ है।
डॉ. भागवत देशभर में सतत प्रवास करते हैं और उनके कहने का सार इन्ही विसंगतियों की ओर ही है। दूसरा तथ्य यह कि इस योजना का 50 प्रतिशत लाभ दक्षिण के पांच राज्य केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना के नागरिकों द्वारा उठाया गया है। यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह कि इन पांच राज्यों में लोग सरकारी अस्पतालों में इस योजना का सर्वाधिक लाभ ले रहे हैं। यानी इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता नहीं है। इसका मतलब यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में इलाज का जो आंकड़ा निजी के बराबर दिख रहा है उसमें पांच दक्षिणी राज्यों का निर्णायक योगदान है।
तस्वीर का दूसरा पहलू उत्तर प्रदेश है जहां 5.1 करोड़ आयुष्मान कार्ड होने के बावजूद महज 43 लाख लोगों ने ही योजना का लाभ लिया। समझा जा सकता है कि उत्तर और पश्चिम के राज्यों में निजी अस्पतालों ने आयुष्मान का भरपूर फायदा उठाया है। यह भी जानना आवश्यक है कि इन पांच राज्यों में देश की कुल 20 प्रतिशत आबादी ही आती है। यानी 80 फीसदी आबादी को महज 50 फीसदी हिस्सेदारी में संतोष करना पड़ रहा है।। पांच राज्यों को छोड़कर देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत कितनी गंभीर है यह इन आंकड़ों से हम समझ सकते हैं। इसलिए डॉ. मोहन भागवत के बयान को व्यापक सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत किडनी, कैंसर, लिवर और हार्ट के मरीजों की राजधानी बनता जा रहा है। समय रहते हमें चैतन्य होने की आवश्यकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)